मम योनिर्महद ब्रह्म तस्मिन्गर्भं दधाम्यहम् ।
सम्भवः सर्वभूतानां ततो भवति भारत ॥3॥
सर्वयोनिषु कौन्तेय मूर्तयः सम्भवन्ति याः ।
तासां ब्रह्म महद्योनिरहं बीजप्रदः पिता ॥4॥
मम–मेरा; योनि:-गर्भ ; महत्-ब्रह्म-पूर्ण भौतिक सार ; तस्मिन्-उसमें; गर्भम्-गर्भ; दधामि-उत्पक करता हूँ; अहम्–मैं; सम्भवः-जन्म; सर्व-भूतानाम्-समस्त जीवों का; ततः-तत्पश्चात; भवति–होना भारत–भरतपुत्र, अर्जुनः सर्व-सभी; योनिषु–समस्त योनियों में; कौन्तेय-कुन्तीपुत्र, अर्जुन; मूर्तयः-रूप; सम्भवन्ति-प्रकट होते हैं; याः-जो; तासाम्-उन सबों का; ब्रह्म-महत्-वृहत प्राकृत शक्ति; योनिः-जन्म; अहम्–मैं; बीजप्रदः-बीजप्रदाता; पिता–पिता।
BG 14.3-4: हे भरत पुत्र! सभी भौतिक पदार्थ, प्रकृति, गर्भ है। मैं इसी को जीवात्मा के साथ गर्भस्थ करता हूँ जिससे समस्त जीवों का जन्म होता है। हे कुन्ती पुत्र! जिसमें सभी प्रकार की जीव योनियाँ जो जन्म लेती है, उनकी भौतिक प्रकृति गर्भ है और मैं उनका बीज प्रदाता जनक हूँ।
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जैसा कि 7वें और 8वें अध्याय में वर्णन किया गया है कि भौतिक सृष्टि के सृजन, स्थिति और प्रलय के चक्र का क्रम चलता रहता है। प्रलय के दौरान जो जीवात्माएँ भगवान से विमुख होती हैं वे महाविष्णु के उदर में प्रसुप्त जीवंत अवस्था में समा जाती हैं। भौतिक शक्ति प्रकृति भी अव्यक्त अवस्था में भगवान के महोदर में चली जाती है। जब भगवान सृष्टि सृजन की इच्छा करते हैं तब वे प्रकृति पर दृष्टि डालते हैं। परिणामस्वरूप यह व्यक्त होने लगती है और फिर क्रमिक रूप से महान, अहंकार, पंचतन्मात्राओं और पंच महाभूतों की उत्पत्ति होती है। दूसरे सृष्टिकर्ता ब्रह्मा की सहायता से प्राकृतिक शक्ति विविध जीवन रूपों को उत्पन्न करती है और भगवान आत्माओं को उन उपयुक्त उन शरीरों में रखता है जो उनके पूर्व कर्मों द्वारा निर्धारित होता है। इसलिए श्रीकृष्ण कहते हैं कि प्रकृति गर्भ के समान है और आत्माएँ बीज शुक्राणुओं के समान हैं। वे आत्माओं को असंख्य जीवन रूपों में जन्म देने वाली मातृ शक्ति के गर्भ में भेजते हैं। ऋषि वेदव्यास श्रीमद्भागवतम् में इसी प्रकार का वर्णन करते हैं
दैवात्क्षुभितधर्मिण्यां स्वस्यां योनौ पर:पुमान्।
आधत्त वीर्यं सासूत महत्तत्त्वं हिरण्मयम्।।
(श्रीमद्भागवतम्-3.26.19)
"परम भगवान आत्माओं को प्रकृति के गर्भ में गर्भाधान कराता है। तब जीवात्मा के कर्मों से उत्प्रेरित होकर प्राकृतिक शक्ति उनके लिए उपयुक्त जीवन रूप तैयार करने का कार्य करती है। वह सभी आत्माओं को संसार में नहीं भेजती बल्कि केवल विमुख आत्माओं को भौतिक जगत में भेजती है।"